
बनकर अधूरी अपनी कहानी रही;
कूछ तुमने चाहा, कुछ थी मनमानी मेरी।
बिन साथ तेरे,
हर क़िस्सा लगें अनसुना।
ख्यालों में,
टकराती तेरी उंगलियां…..
क्या मैं कहुं, क्या थी वजह;
बुरी आदतों का कसूर।
क्या मैं कहुं, जो मीली सज़ा;
देखें सपने हुए सारे चूर।
कुछ भी ना लागे….
कुछ भी ना लागे अब मेरा
जो है पास मेरे,
है तुझमें कहीं बसा…..
जब मर्ज़ी ही मेरी थीं, क्यों सवाल है मेरा मुझसे।
क्या गुनाह हुआ है मेरा, कोई खता हुई है क्या मुझसे?
गुमशुदा हुए,
अल्फाज़ नहीं मेरे पास।
रुला जातें हैं,
बीते लम्हे बने गुनहगार।
मेरा जो था, मुझमें बसा;
वो भी ना मेरा हो सका।
अपने हुए, मुझसे खफा;
मनमानी ने जो देदीं पनाह।
कुछ भी ना लागे….
कुछ भी ना लागे अब मेरा
जो है पास मेरे,
तन्हाइयों में है घिरा…..
© Danish Sheikh